थोपी हुई पोजिटिविटी (Toxic Positivity) !

Forced positivity is toxic positivity
Pic Credit: Mario Rodriguez / Aggie

इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारा सकारात्मक होना हमारे जीवन के लिए बेहद जरूरी है। पर क्या इसका ये मतलब है कि हर जगह सकरतमकता थोपी जाए? अखबारों में भी “नौ नेगेटिव डे” होने लगे हैं, मतलब पोजिटिविटी के नाम पर चुभने वाली खबरे हवा हो जाएँ।

खुश रहना एक निरंतर क्रिया है, प्रयास है। कुछ लोग इसमें निपुण हैं तो कुछ अभी सीख रहे हैं। जो लोग हमेशा खुश नज़र आते हैं, उन्होने भी कभी न कभी गहरे दुख झेले हैं। उन दुखों को अच्छे से जिया है, जितना वक़्त देना चाहिए था, उतना दिया है। तब कहीं जाकर वो अपने घाव को पूरी तरह भर पाये, उन दुखों से उबर पाये।

लेकिन ठीक इसके विपरीत हम जब किसी को दुखी देखते हैं, तो बिना उसको सुने उसे ज्ञान देना शुरू कर देते हैं। खुश रहो, ये करो, वो करो, सकारात्मक सोचो। इसमें गलत कुछ नहीं है। मगर सकारतमकता का हलवा परोसने से पहले हुमें उस इंसान की थाली में रखे कडवे सूप को भी देखना चाहिए। उसे नज़र अंदाज़ नहीं करना चाहिए। वो सूप या करेले का जूस जो भी कहे, उसका इलाज़ कर रहा है। और वो बेहतर तभी हो पाएगा जब उसकी बीमारी को जड़ से खत्म किया जाए। और वो तभी हो सकता है की वो इंसान उस दुख को समझे, उससे सीखे।

इससे ये बात भी सामने आती है कि हम सुनने से ज़्यादा सुनाने में महारत रखते हैं। हर कोई सुना रहा है, हर कोई अपने अपने मन की बात माइक लेकर किए जा रहा हैं। जबकि उसी माइक से विचार विमर्श होना चाहिए, प्रोग्राम रेडियो सा न होकर पॉडकास्ट जैसा होना चाहिए।

हम हीलिंग की बात करते हैं। बहुत बड़े दुख से गुज़र रहे इंसान को अपने हिसाब से उससे उबरने का मौका दिया जाना चाहिए। ये उसकी आत्म शक्ति ही है की वो दुख झेल गया, या रहा है। तो सबसे अच्छा तरीका है की हम रेडियो से शुरुवात करें जिसमें हम सिर्फ सुनें और धीरे धीरे पॉडकास्ट की तरफ चले जाएँ। जहां दिल खोल के बातचीत हो, किसी समय सीमा के बिना। ये कहना या लिख देना आसान हैं, मगर खुद को ऐसा बना पाना मुश्किल। लेकिन नामुमकिन तो बिलकुल नहीं।

हमें ये याद रखना चाहिए की आसानी से मिल जाने वाली चीज़ या सफलता ज्यादा दिन नहीं टिक सकती। फिर चाहे वो पोजिटिविटी ही क्यूँ न हो। ऐसे में अगर हम दुख से जुड़े कुछ फिल्मी गानों की बात करें तो ये उभर कर सामने आते हैं । पहला “मेंने दिल से कहा ढूंढ लाना खुशी, नासमझ लाया गम, तो ये ग़म ही सही। दूसरा, “या दिल की सुनो दुनिया वालों या मुझको अभी चुप रहने दो, मैं ग़म को खुशी कैसे कह दूँ, जो कहते हैं उनको, कहने दो। और तीसरा, “मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया, ग़म और खुशी में फर्क न महसूस हो जहां, में दिल को उस मुकाम पे लता चला गया।

ये तीन गाने दुख के तीन स्टेज हैं, और इसी क्रम में हों तो बात जमती है, जहां पहले दुख को पहचाना जा रहा है, फिर समझा जा रहा है, और अंत में उबर जाने के बाद समझ आता है की सुख और दुख दोनों एक ही हैं, दोनों को जीया जाना ही ज़िंदगी है। लेकिन होता इसके उलट है, गानों की क्रोनोलोजी बदल सीधा तीसरे गाने को गुनगुनाने को कह दिया जाता है, और बात नहीं बनती।

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