आनंद मूवी का वो गाना तो सुना होगा, आप पूछेंगे कि कौन सा, उसमें तो सारे ही गाने सुनने और सुनते जाने के लायक हैं। अभी तक सुन ही रहे हैं हम लोग। उन्हे बनाने वाले, गाने वाले, पर्दे पर निभाने वाले सब चले गए पर गाने आज भी वहीं के वहीं। यहाँ जिस गाने की बात हो रही है वो है “ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय” । तो ये जो किस्सा है वो असल घटना पर आधारित है। हाँ थोड़ा बहुत लिखने में क्रिएटिव लिबेर्टी के नाम पर कुछ जुड़ेगा पर बाकि सब सच। असाधारण पर सच।
एक रिटायर्ड दंपति हैं जो सारी ज़िंदगी की भाग दौड़ के बाद एक छोटे से शहर । टीएर 2 या 3 का कोई भी शहर मान लीजिये, में हँसी खुशी रह रहे हैं। हँसी खुशी क्यूंकी वो शुरू से इसी शहर में रहे, बचपन के दोस्त भी यहीं है। अगर कोई नहीं है साथ तो बच्चे। एक विदेश में और एक देश में पर बात वही है। जब साथ न हो तो क्या देश और क्या विदेश। बच्चे अच्छे और काबिल, समझदार, माँ बाप ने जैसे उनको मुश्किलों में पाला और अपना सब कुछ उनपर लगा दिया उससे अच्छी तरह परिचित। और जितना हो सकता है उससे अधिक ही उनकी देखभाल कर रहे हैं। फिर चाहे पैसे से हो या वक़्त निकालकर साथ रहने या माँ बाप को अपने साथ ले जाकर रखने में।
पति पत्नी छोटे बच्चे के साथ जो दूसरे शहर में पर देश में ही है, कुछ दिन बिताकर घर लौटे ही थे की पत्नी की तबीयत बिगड़ गई। और बिगड़ी तो ऐसी की कुछ ही दिनों में वो लाइफ सपोर्ट सिस्टम यानि वेंटीलेटर पर। किसी को कैसा लग रहा होगा हम सिर्फ सोच ही सकते हैं अनुभव तो परिवार या करीबी दोस्त ने ही किया । जैसे जैसे दिन बीते, पत्नी के होश में आने की उम्मीद हल्की होती गई और ग़म थोड़ा और गाढ़ा । आखिरकार पति ने फैसला किया की अपनी जीवन साथी को इस कष्ट से मुक्ति दे दी जाये। विदेश में रह रहे बड़े बच्चे को भी बताया गया। वो दिन तय हो गया जिस दिन हल्की होती उम्मीद को मिटाकर फिर से एक नई शुरुवात की कोशिश की जाये।
बड़े बच्चे का सात समंदर पार से पैसे भेज देना आसान है पर खुद आना मुश्किल । इसीलिए सब कुछ ध्यान में रखकर किया गया ताकि अंतिम समय में पूरा परिवार साथ हो। विदेश से देश का सफर वैसे ही बहुत लंबा होता है। पर जब पता हो कि जब आप घर पहुँचोगे तो माँ नहीं मिलेगी तो उस सफर की लंबाई नापने वाली इकाई शायद हम कभी परिभाषित न कर पाएँ।
डॉक्टर तैयार थे लाइफ सपोर्ट का प्लग हटाने के लिए कि तभी उस ज़िंदा दिखने वाले शरीर में हलचल हुई। और अचानक से हल्की पड़ती मिटने को तैयार उम्मीद में आसमानी रंग भर आया। मानो तपती दोपहर में कहीं से बादल उड़ आयें और ठीक वही बरसने लगें जहां जमीन सूख कर फट चुकी हो। फिर से परिवार में खुशी की लहर उठी। वो पत्नी, वो माँ, वो दोस्त फिर से जी उठी और अपने घर लौट आई। क्यूंकी सब साथ थे तो फैसला हुआ की घर बार समेटा जाये। माँ बाप का अब शहर त्याग कर बच्चों के साथ जाना ही बेहतर है। इस सब में सबसे ज़्यादा किस इंसान के दिलो दिमाग और शरीर पर असर पड़ा होगा वो बताने की जरूरत नहीं। जीवन साथी यानि पति, उसने खुद को कोसा भी की कैसे उसने मन बना लिया था की पत्नी को जाने दिया जाए। वो होता कौन है ये फैसला लेने वाला। खैर, घर की डील हुए, और भी कुछ जायदाद थी उन्हे भी जो पहले मिला उसको बिना मौल भाव के दे दिया गया।
एक महीना होने को आया। माँ अब बेहतर हो रही थी। बड़े बच्चे को अब लौटना था। उसने टिकट कारवाई और सबसे विदा लेकर फ्लाइट में बैठा। इस बार सफर उतना लंबा नहीं होने वाला था। वो खुश था, क्यूंकी माँ का हाथ अभी भी सर पर था। फ्लाइट आधे रास्ते में होगी कि तभी यहाँ बाप को, पति को, दिल का दौरा पड़ा और एक अच्छी मौत नसीब हुई। आप बिना अस्पताल जाए चुपचाप ज़िंदगी से विदा ले लें, ये ऑफर अगर किसी को भी मिले तो वो एक्सैप्ट कर ही लेगा। खासकर एक ऐसे इंसान ने जिसने अभी अपनी जीवन साथी को न जाने क्या क्या झेलते देखा था । छोटा बच्चा अब पिता की विदाई की तैयारी करने लगा। बड़े को कुछ देर में खबर होगी जब उसकी फ्लाइट लेंड होगी।
तो उम्मीद है इस सच्ची कहानी को पढ़ने के बाद ये समझ आया होगा कि “ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय” क्यूँ आज भी गुनगुनाया जाता है। और क्यूँ आनंद जैसी ट्रैजिक मूवी देखने के बाद भी हम दुखी होने के बजाए एक बेहतर तरीके से जीने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
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