चार जून को दो रिज़ल्ट आए, एक चुनाव का और दूसरा नीट एक्जाम का। दोनों बहुत जरूरी, एक में देश को अगले पाँच साल के लिए सरकार मिलने वाली थी, और दूसरे में आने वाले समय के डॉक्टर । रिजल्ट्स कैसे रहे इस पर बात सारी दुनिया ने किया और कर ही रही है। तो उसे जाने देते हैं। जून जाने को है, माने आधा साल छु मंतर। आधे साल के आधे समय में तो लगता है, कि चुनाव के अलावा कुछ हुआ ही न हो। और हो भी क्यूँ न, मदर ऑफ डेमोक्रेसी जो ठहरा अपना देश। मौसम और “क्या हाल चाल है” की स्माल टॉक से सिरीज़ निकली थी “सोल्स ऑफ पटना”। मोटा मोटा शहरनामा जैसा कुछ। अभी चेक किया तो नंबर चार पर अटका हुआ दिखा मामला। उसके बात कोई कहानी नहीं शहर और उसके बाशिंदों पर।
ऐसा नहीं की किस्से नहीं थे, पर ऐसा कोई किस्सा या किरदार नहीं था। जिसने नींद का दरवाजा खटखटाकर कहा हो कि भई इतना इंट्रेस्टिंग किस्सा है, किरदार सामने खड़ा है, और तुम हो कि कीबोर्ड धड़धड़ाने में आलस कर रहे हो। इस बार के शहरनामे में सफरनामा भी है। तो जून की खतरनाक गर्मी में हम निकले एक हीट वेव वाले शहर से उसको ही टक्कर देते एक और शहर के लिए। पटना से कुछ सवा सो किलोमीटर दूर। लोग पाँच से ज़्यादा थे तो दो गाडियाँ ले जाने से अच्छा एक बड़ी गाड़ी विद ड्राईवर ले जाने का फैसला हुआ। जिस दिन जाना था उससे एक दिन पहले, मानों सारी कायनात ने कोशिश की कि ट्रिप न हो।
तो हुआ यूँ कि एक के बाद एक ड्राईवर अलग अलग कारण से ट्रिप से पहले ही रिटायर्ड हर्ट हो गए। फाइनली रात को एक ड्राईवर फ़ाइनल हुआ। उसको पता समझा दिया गया, और ये भी कि इससे पहले कि धरती तपने का नया वर्ल्ड रेकॉर्ड बनाए, शहर से बाहर निकल जाना है। माना सवा सो किलोमीटर ज़्यादा नहीं पर सड़क इतनी शानदार है कि कम से कम तीन और ऑन एव्रेज चार घंटे तो कहीं नहीं जाने थे। सुबह ड्राईवर का इंतज़ार हो रहा था, नींद इस चक्कर में आई नहीं थी कि जागना ही है थोड़ी देर में। ड्राईवर ने फोन नहीं उठाया। लगा कायनात, नियति, यूनिवर्स जो भी कहो कुछ खेल करने में लगे हैं।
थोड़ी देर के सस्पेन्स के बाद पता चला की ड्राईवर फिर बदल चुका है, पर राहत की बात ये थी कि वो घर के आस पास पहुँच चुका है। और कुछ देर में प्लान के लगभग डेढ़ घंटे बाद शहर से रवाना हो गए। जो कि सफर की अच्छी शुरुवात थी। ठीक वैसे ही जैसे रोहित शर्मा, वर्ल्ड कप में इन दिनों दे रहे टीम को, बावजूद इसके कि कोहली जल्दी पवेलियन लौट रहे हैं। जबर्दस्ती ओपनिंग करने भेजना भी तो ठीक नहीं। खैर अपने ड्राईवर साहब अनुभवी भी थे और अपने मन से आए थे तो खुश भी। थोड़े बहुत जाम का सामना करके हम ठीक टाइम से होटल पहुँच गए। बड़ा रिज़ॉर्ट है और हम पहले भी जा चुके हैं दिक्कत बस एक, ड्राईवर के रहने का इंतजाम कुछ खास नहीं था। पर पहले ही बात कर ली गई थी। हम रूम में शिफ्ट और हुए मैनेजर ने मुझे बता दिया कि ड्राईवर को जगह दे दी गई है। यहाँ मुझसे पहली गलती हुई।
बातचीत करने पर दोनों गलतियाँ जो पहले हुई थी वो सामने आकर बोलने लगी। “लुक, वी टोल्ड यू, बट यू इग्नोर्ड अस”…
दोपहर का टाइम और थकावट तो आराम बनता था। थोड़ी देर में मुझे ड्राईवर का ख्याल आया। फोन लगाया तो व्यस्त वाली टोन। मेंने दोबारा नहीं लगाया, सोचा कॉल आ जाएगा । आराम तो उसको भी चाहिए। यहाँ दूसरी गलती हुई। खैर, धीरे धीरे शाम हुई और बाहर का मौसम थोड़ा बेहतर। अचानक ड्राईवर का कॉल आया। और उन्होने कहा की आप रिसेप्शन पर आकर गाड़ी की चाबी ले लीजिये, मैं वापस जा रहा हूँ, आप गाड़ी खुद ले आना। ये अब तक का सबसे शौकिंग और मजेदार ट्विस्ट भी था। बातचीत करने पर दोनों गलतियाँ जो पहले हुई थी वो सामने आकर बोलने लगी। “लुक, वी टोल्ड यू, बट यू इग्नोर्ड अस”…
तो हुआ यूँ की होटल मैनेजर ने बोल तो दिया था पर ड्राईवर को रूम नहीं दिया था, कुछ कनफ़्यूजन की वजह से। और वो बेचारा गर्मी में किसी तरह एडजस्ट करके दिन भर रहा। बहुत बुरा लगा, ड्राईवर को ये बात भी बुरी लगी कि हम आराम से एसी में हैं। और उसकी सुध नहीं ली। बात जायज़ भी थी। पर मेंने तो फोन किया था, उसका ही फोन कहीं और बिज़ी था। पर जब दोनों तरफ से ईमानदारी से बात हो तो बात समझ आ जाती है। तो दोनों को आ गई। एक और धोखा हुआ था ड्राईवर साहब के साथ। उनको ये नहीं बताया गया था कि हमारा दो दिन का स्टे है। उसे बोलकर भेजा गया था कि शाम तक वापस आ जाना है। और वो बिना कपड़े और जरूरी समान के आया था। और भी काफी कुछ था, जो किस्से से बाहर रखा जा सकता है।
छोटी छोटी बातें बड़ी शख्सियत की तरफ इशारा करती हैं।
~गौरव सिन्हा
ड्राईवर साहब की बातें बताई पर ये बताना भूल गया कि उनकी कद काठी और बात करने का तरीका पंचायत सिरीज़ के बनराकस वाले कैरक्टर जैसा था। वही “देख रहा है न बिनोद” वाला। पान के शौकीन, अलग से पैक करवा कर रखा था, और मेरे पूछने पर साफ कह दिया था कि इसके बिना ड्राइविंग नहीं होती, हाँ गुटखा या तंबाकू नहीं खाते हम। शुरू में लगा भी बनराकस जैसा जरूरत से ज़्यादा शिकायती। लेकिन जब कनफ़्यूजन के बादल छटे तो किरदार अलग निकला। पार्किंग टिकिट के पैसे खुद देना हो, या सबका ध्यान रखकर गाड़ी चलाना। छोटी छोटी बातें बड़ी शख्सियत की तरफ इशारा कर रही थी।
जब आप रोड ट्रिप पर जाएँ तो ड्राईवर का व्यवहार तो मैटर करता ही है, उससे ज्यादा उसकी ड्राइविंग स्किल्स। अपने वाले साहब दोनों मामले में बढ़िया निकले। घर आते आते गप्प हुई, और उन्होने हँसते हुए गलत बोलकर भेजने वाले को सबक सिखाने का प्लान भी बताया। और ये भी पता चला की उनकी अपनी गाड़ी भी है सिर्फ ड्राईवर नहीं हैं, अनुभव दिख भी रहा था। रास्ते अच्छे से जानते थे, ये बात भी नज़र आ गई। पहले पहल लगा था फेंक रहे हैं और साहबों की तरह। नहीं नहीं, मैं उनकी बात नहीं कर रहा, वो अब माननीय हो गए हैं।
पटना में अधिकतर लोग फुल कोन्फ़िडेंस से आधा झूठ बोल लेते हैं, और ऑन टाइम, टाइम से आधे घंटे आगे होता है।
~ गौरव सिन्हा
पटना में अधिकतर लोग फुल कोन्फ़िडेंस से आधा झूठ बोल लेते हैं, और ऑन टाइम, टाइम से आधे घंटे आगे होता है। उस हिसाब से ड्राईवर साहब यानि, इस बार के “सोल्स ऑफ पटना” के मुख्य किरदार एक्सेप्शन निकले। सफर के अंत में कोई गिले शिकवे नहीं थे। बस वो जो एक झूठ बोलकर किसी को भेजा गया था, वो नहीं होना चाहिए था। पर उसके बाद के सारे सच काफी थे उसकी भरपाई करने में।
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