रेसोल्यूशन न लेने का रेसोल्यूशन!

An AI Generated Pic of Queue at Indian Post office

रेसोल्यूशन न लेने का रेसोल्यूशन! Hindi Blog Post by Gaurav Sinha

दो हजार तेईस छु मंतर हो गया। अभी कुछ ही दिनों पहले तो शुरू हुआ, और अब इतिहास के पन्नों में खो गया। वैसे भी आजकल सब कुछ हिस्टॉरिकल ही होता है। कुछ भी हो, ऐतिहासिक प्रीफिक्स के साथ ही हम तक पहुँचता है। सोच रहा हूँ अपनी किताब का प्रमोशन भी कुछ ऐसे करूँ, कि हिस्टॉरिकल मास्टरपीस जो आज से सो साल बाद भी पढ़ी जाएगी। ख़ैर, ये प्रमोशन तो हो ही गया बेशर्मी वाला तो आगे बढ़ते हैं।

दो हज़ार तेईस के आखरी दिन जो लेख लिखा था उसको भी एतिहासिक रेस्पोंस मिला। मेरी उल जुलूल कहानी में न जाने क्या पसंद आया। हाँ वो मस्तमौला किरदार वजह था शायद। सौल्स ऑफ पटना का दो हज़ार चौबीस का ये पहला लेख माना जा सकता है। हुआ यूँ कि किताबें पोस्ट करने के लिए ऐतिहासिक शहर के एक दशक से कुछ ज़्यादा पौराणिक पोस्ट ऑफिस जाना हुआ। हाथ में दस ग्यारह पैकेट और हर पैकेट में एक किताब। भेजनी पिछले साल ही थी, पर न्यू इयर ईव भी था और वीकेंड भी तो सब बाइ डिफ़ाल्ट छुट्टी मोड़ में थे। शुक्र है क्रिसमस के दिन जैसे अचानक तुलसी पूजन शुरू हुआ है, वैसे नए साल के साथ नहीं हुआ अभी तक।

चूंकि ये पोस्ट ऑफिस हैड ऑफिस टाइप है यहाँ हमेशा भीड़ रहती है। अगर आप 90 या उससे पहले के दशक के प्राणी हैं, और आपका नाता मिडिल क्लास परिवार से रहा है। तो ज़ाहिर है कि आपको लाईन में लगने की कुछ न कुछ प्रैक्टिस तो होगी ही। तो हम भी लग लिए। लाईन में लगने का अलग मज़ा है, लोगों में बातचीत शुरू होने में वक़्त नहीं लगता। जो आजकल के डिजिटल क्रांति के युग में बहुत बड़ी बात है। लाईन यूं रेंग रही थी जैसे ट्रक ड्राईवरों की हड़ताल का असर पोस्ट ऑफिस पर पड़ने लगा हो। पेट्रोल पम्प या हाइवे होता तो समझ भी आता पर पोस्ट ऑफिस में असर? ये भी उतना ही तार्किक है जितना हमारे प्राइम टाइम टीवी न्यूज़ का तर्क से भरपूर होना। पर अगर लेख में सामयिक बात न रखें तो पता कैसे लगेगा किस दौर में लिखा था। खैर इस जस्टीफ़िकेशन से आगे बढ़ते हैं।

तो बातों का सिलसिला शुरू हुआ, मुझसे आगे खड़े महाशय व्याकुल थे, और जायज़ भी था लंच टाइम पर पहुँचे थे और बहुत पास होकर भी काउंटर तक नहीं पहुँच पा रहे थे। कारण पोस्ट ऑफिस का अति व्यस्त स्टाफ जो एक काउंटर पर होकर भी 2-3 मैटर एक साथ संभाल रहा था। व्याकुल महाशय मुझे बताने लगे इससे पहले जो स्टाफ हुआ करता था, वो मिनटों में सब निपटा देता था, ये सुस्त हैं। उसके आगे खड़े अंकल भी थोड़े विचलित हुए, संगत के असर से। बोले ये लाइन के बिना लोगो को एंटरटेन कर रहे हैं। मेंने सहमति जताई “गलत बात है”। अति व्याकुयल महाशय बोले लोग दस दस पार्सेल लेकर आ जाते हैं। अब में विचलित हुआ, और अपना किताबों से भरा झोला दिखाकर बोला ज़्यादा तो मेरे पास भी है। मगर, अगर लाइन में लग कर किया जाए तो क्या बुरा है। वो झट से थोड़ा शांत हुआ, बोला आपकी बात अलग है, ये ऑफिस के अंदर से डाइरैक्ट जो जा रहे हैं, एक घंटा हो गया मुझे।

मेरी खुशकिस्मती रही कि मुझे उतना इंतज़ार नहीं करना पड़ा। हाँ जैसे जैसे काउंटर के नजदीक आ रहा था, नज़र आ रहा था की काउंटर कैसे अंदर और बाहर दोनों तरफ से अटैक किया जा रहा था। ये लाइन तोड़ने की आदत तो हम सबमें है और झेलते भी हम सभी हैं। बस जगह अलग हो सकती है। फिर चाहे वो मंदिर के वीआईपी दर्शन हों, या एयरपोर्ट पर प्रीमियम एंट्री। मुझे ये सब इसलिए भी रोचक लग रहा था क्यूंकी, आजकल जो किताब पढ़ रहा हूँ वो भी इसी विषय पर है। “वॉट मनी काँट बाइ – द मॉरल लिमिट्स ऑफ मार्केटस”, अभी तक जितनी पढ़ी है उसमें अमेरिका के संदर्भ में लाइन को पैसों से तोड़े जाने की मोरालिटी पर बढ़िया विचार हैं। अपने देश में इस बारे में अभी हम सोच नहीं रहे। कैसे मंदिर में पैसे लेकर लाइन टापने को हमने सामान्य मान लिया है वो हमारी उदार जीवन शैली को दर्शाता है।

वापस पोस्ट ऑफिस की लाइन पर आते हैं, काउंटर पर मेरा नंबर भी आया और तभी एक स्टूडेंट सा दिखने वाला लड़का ये पूछने आया कि क्या ऑनलाइन पेमेंट एक्सैप्ट करते हैं। और बड़ा सा क्यू आर कोड होने के बावजूद उसे जवाब मिला “नहीं”। कमाल ही है सब्जी वाले ऑनलाइन पेमेंट ले रहे हैं पर ये सरकारी दफ्तर पूरी तत्परता से देश में नोटों के प्रचार प्रसार में अपना योगदान दे रहा है। इकॉनमी के लिए नोटों का चलन भी बहुत जरूरी है। तो लाईन खत्म होते होते एक और बातचीत हुई, और मेंने चलते फिरते ए टी एएम का रोल निभाया। वो मस्तमौला दुकानदार याद है, वही देसी क्रिस्टोफर नोलन। उसने बिना वजह मुझे बैंकर नहीं कहा था। आज के युग में हम सभी किसी बैंक से कम थोड़ी हैं। हजारो करोड़ों की न सही सो पचास रुपये की बैंकिंग तो कर ही सकते हैं।

ब्लॉग अब लंबा हो चला है, और 90 के दशक के बाद के लोगों के लिए बोरिंग भी। शीर्षक के बारे में ज़्यादा बात नहीं करेंगे। शायद मेरा वहम हो। पर साल दर साल, न्यू इयर रेसोल्यूशन का जो फ़ेक प्रोपेगेंडा था वो कम हो रहा है। मुझे बहुत कम मैसेज या पोस्ट दिखे, बढ़ा चढ़ा कर न्यू इयर रेसोल्यूशन की बात करने वाले। लोग शायद रीयलिस्टिक हो गए हैं। जो अच्छी बात है। वैसे आप लोगों ने कोई रेसोल्यूशन लिया हो तो बता सकते हैं। बता देने से कम से कम इमेज की चिंता में, हो सकता है आप एक हफ्ते एक्सट्रा निभा सकें उसे।

Share
Share
Scroll Up