
रात तो नहीं हुई थी, पर नवंबर के महीने में हल्के सर्द मौसम ने दस्तक दे दी थी। इसलिए दिन कुछ जल्दी ढलता हुआ मालूम हो रहा था। उसकी उम्र कोई सत्रह अठारह की रही होगी। सफ़ेद और नीले रंग का सूट पहने वो तेज़ कदमो से घबराई सी चली जा रही थी। मन ही मन खुद को कोसती, अपनी घबराहट को काबू करने की नाकाम कोशिश करती हुई। कभी अपना दुपट्टा संभालती तो कभी अपना बैग ऊपर खिसकाती, जो कंधे से बार बार सरक कर नीचे फिसल रहा था। फोन की बैटरी ख़त्म थी तो वो किसी काम का था नहीं। इसीलिए उसे बस से उतरने से पहले ही बैग में रख लिया था।
मुश्किल से घंटे भर पहले की बात है, पर लग रहा है मानो कितना समय गुज़र गया..
कॉलेज से निकलकर खुशी खुशी स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस में चढ़ी थी। दस दिन की छुट्टियाँ थी और घर पर त्योहार के बहाने सबसे मिलने का मौका। बस में खिड़की वाली सीट पर बैठी, कानों में इयरफोन लगाए वो नए नए गाने सुन रही थी। बाहर खेतों की हरियाली और हवा के झोंके जब उसके चेहरे को छूते तो एक अलग उमंग का एहसास होता। सफर तकरीबन दो घंटे का ही था। आधे रास्ते तक तो सब ठीक था। पूरी सीट उसकी थी और वो आराम से गाने सुनने में मग्न। तभी एक स्टॉप पर अधेड़ उम्र के एक अंकल बस में चढ़े और पता नहीं क्यूँ बाकी सीटों को पार करते उसके बगल में आकर बैठ गए। उसे अजीब लगा वो थोड़ा और खिसक कर खिड़की की तरफ हो गई।
तभी अचानक नज़रें उस आदमी से टकराई तो वो मुस्कुराए। जाने क्यूँ उसे उनकी हँसी अजीब लगी, उसे बुरा महसूस हुआ। लेकिन उन्होने ऐसा कुछ नहीं किया था जिसका विरोध किया जाए। हँसना कोई गलत थोड़े ही है, सीट खाली थी तो कोई भी बैठ सकता है। जो भी हो उसे अच्छा नहीं लगा। आए दिन जैसी खबरे सुनने में आती हैं, जैसी घटनाएँ होती हैं, ऐसे में ऐसी शंकाएँ होना स्वाभाविक ही है।
उसका स्टॉप आने में करीब आधा घंटा बचा था। उसने पापा को फोन करके बताया कि वो कुछ देर में पहुँच रही है। और बात करते हुए उसकी आवाज़ खुद ब खुद तेज़ हो गई। मानो उस अधेड़ उम्र के अजीब अंकल को जताना चाहती हो कि वो अकेली नहीं। पापा से बात कर, फिर से फोन में गाने शुरू हुए, उसे पता ही नहीं चला कि फोन की बैटरी कब खत्म हुई। गानो की आवाज़ रुकी तो उसकी समझ में आया कि फोन का इस्तेमाल हद से ज़्यादा हो चुका है। तभी कंडक्टर की आवाज़ सुनाई दी, और ज़्यादा कुछ सोचे बिना, आनन फानन में वो स्टॉप पर उतर गई। उसे डर था कहीं उसका स्टॉप मिस न हो जाए। लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा, वो दो स्टॉप पहले ही उतर गई थी।
उसे खुद पर बहुत गुस्सा आया। आस पास कोई ऑटो या रिक्शा नहीं था। अगली बस भी दो या तीन घंटे बाद ही आएगी, उतना इंतज़ार नहीं किया जा सकता था। उसका स्टॉप तकरीबन सात-आठ किलोमीटर दूर था। थोड़ा कम या उससे ज़्यादा भी हो सकता है। पर इतना पास नहीं था कि वो दौड़कर घर पहुँच जाये। ये इंडस्ट्रियल एरिया था, आस पास बस ट्रक खड़े थे, और गाड़ी ठीक करने वाले मैकेनिक। जिस उधेड़ बुन में वो बस में थी, वो ख्याल और डर अब कहीं ज़्यादा गहरे हो गए थे। आस पास के लोगों का उसको घबराया हुआ देखकर उसकी तरफ देखना सामान्य था। मगर उसको ऐसा महसूस हो रहा था मानो वो एक जंगल के बीचों बीच है, और उसके चारों तरफ खतरनाक जानवर। जो उसे देखकर गुर्रा रहे हैं और इंसानी आवाज़ में हँस भी रहे हैं। उसका दिमाग उसे एक बड़ी अनहोनी से बचाने के लिए जाने क्या क्या डर परोस रहा था।
उसके माथे पर पसीने की बुँदे उभर आई। वो बदहवास आगे बढ़ती जा रही थी। उसमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि रुककर किसी से मदद माँगे । फोन लेकर पापा से बात करे। जाने पापा कितने परेशान होंगे, जब बस में उसे नहीं देखा होगा। हो सकता है पापा खुद ही उसे लेने के लिए इस तरफ चल पड़े हों। हजारों सवाल और उनके जवाब एक साथ दिमाग में उमड़ रहे थे।
तभी अचानक, एक स्कूटर आकर उसके सामने रुका और उसके दिमाग में चल रहा “सावधान इंडिया” जैसा वो एपिसोड भी रुक गया जिसमे हर हफ्ते कोई न कोई जुर्म दिखाया जाता है। हेलमेट उतारकर जब वो चेहरा उसके सामने आया तो उसे लगा कि अब कोई बड़ी अनहोनी तय है। ये वही अजीब हँसी वाले अंकल थे। अधेड़ उम्र का बदतमीज़ इंसान, इसकी हिम्मत देखो। पीछा करते हुए यहाँ आ गया।
डर हमें वो सब दिखाता है जो सच नहीं होता। इसी वजह से उसे स्कूटर के पीछे बैठी दस बारह साल की बच्ची नहीं दिखी, बस वो इंसान ही नज़र आया जो आज जाने कहाँ से उसकी ज़िंदगी में कुछ बहुत बुरा करने आ पहुँचा था। जब उस बच्ची ने पास आकर कहा “दीदी घबराओ मत” और पानी की बोतल उसके हाथों में दी। तब जाकर उसकी आँखों से डर और खौफ का काला पर्दा हटा।
पापा रास्ते में ही मिल गए। और उसने उस लड़की और उसके पापा को “थैंक यू” कहकर विदा किया। वो पापा के स्कूटर पर बैठी, और वापस जाते उन अंकल और उनकी बेटी को देखती रही। पापा उसे समझाते हुए कुछ कहे जा रहे थे। पर उसका दिमाग उसे उस लम्हे में वापस ले आया जब उसके हाथ में पानी की बोतल देते हुए कहा गया था “दीदी आप घबराओ मत”। वो अंकल तब भी वैसे ही हँस रहे थे, जैसे बस की सीट पर साथ बैठते हुए। लेकिन अब उनकी हँसी चुभ नहीं रही थी। बच्ची ने एक साँस में उसे बताया, “पापा बोल नहीं सकते, हमारा घर उसी बस स्टॉप के पास है जहाँ आप गलती से उतरे थे, पापा ने आपको फोन पर बात करते सुना था, तो उन्हे पता था कि आप गलती से यहाँ उतर गए… वो फटाफट घर आए, मुझे सब समझाया, स्कूटर पर बैठाया और मुझे यहाँ लेकर आए, ताकि आपको प्रोब्लम न हो” और एक बड़ी सी मुस्कान और बड़ी सी साँस लेते हुए उसने अपनी प्यारी सी बात ख़त्म की।
उन अंकल, ने अपना फोन उसकी तरफ बढ़ाया, पापा से बात हुई और उसे दुनिया एक बार फिर सुरक्षित लगने लगी। रास्ते में उस बातुनी बच्ची ने और भी बाते बताई। जिनहे सुनकर उसे और ज़्यादा बुरा लगा। कैसे उसने एक अच्छे भले इंसान को गलत समझा। वो हँस रहे थे, क्यूंकी बोल नहीं सकते थे। साथ आकर बैठने भर से उसने क्या क्या सोच लिया था। हाँ वो सिकुड़ कर बैठी थी, पर अंकल ने भी तो उचित दूरी बनाई हुई थी।
तभी उसके पापा की आवाज़ ने मानो उसे नींद से जगाया वो खुश थे, और बोल रहे थे, “मम्मी को अभी ये सब मत बताना, घबरा जाएगी, कल बताएँगे। मैंने कह दिया था कि बस लेट है। बेटा दुनिया में अच्छे लोग कम नहीं, बस बुराई कुछ ज़्यादा शोर मचा रही है…
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