मेट्रो शहर में वक़्त से एयरपोर्ट पहुँचना और जल्दी सेक्यूरिटी चेक हो जाना एक वरदान है । आज के ज़माने की सबसे व्यस्त जगह में भी आप सुकून महसूस करते हैं। बशर्ते आप अकेले सफर कर रहे हों। मुझे भी लगा था कुछ वक़्त मिलेगा, आराम से हवाई जहाजों को उतरते और उड़ते हुए देखने का। जैसे दिल्ली के कनाट प्लेस या आपके पड़ोस की छत पर ढेर सारे कबूतर बारी बारी दाना चुगते हैं। पानी पीते हैं, फुदकते हैं, और फिर उड़ जाते हैं। कुछ उड़ रहे होते हैं, तभी कुछ आकर फिर दाना चुगने लगते हैं। और ये अफरा तफरी देख कर भी आप को जाने क्यूँ अच्छा सा लगता है।
इस बार मेरे हिस्से में ये अच्छा लगना नहीं था। तीसरी बार मैसेज आया बोर्डिंग गेट बदलने का। सामान ज़्यादा नहीं था, पीठ पर एक बैग पैक, हल्का सा, कुछ कपड़े और जरूरी सामान था बस। बैग जितना हल्का, मन उतना भारी। ये गेट बदलने का मैसेज आकाशवाणी जैसा था। जो मुझे यहाँ से वहाँ भागने को कह रहा था। ताकि मन थोड़ा हल्का रहे। एक जगह रुककर अपना भार बढ़ा न ले।
हर बार नए बोर्डिंग गेट पर जाते हुए कुछ चेहरे बार बार दिखे। ज़ाहिर भी है दो घंटे के सफर में साथ होने वाले थे हम सब। पर एक चेहरा ऐसा जो न भूलने वाला था। एक खाली सीट देखकर में बैठ गया और मोबाइल को चार्ज होने के लिए लगा दिया। वही चेहरा बिलकुल सामने के बैंच पर आकर बैठ गया। तभी घर से फोन आया और मैं बात करने लगा। जितना इग्नोर करता उतना ही वो शख़्स मुझे देख रहा था। आँखों में आँखें डालकर। शायद मेरी बातें सुन ली हों। शायद क्या सुनी ही होंगी। मगर फिर भी आजकल कौन इतनी बेबाकी से देखता है? फुर्सत ही कहाँ है।
ये चेहरा एक माँ का था। दुख में डूबा। किसी बीमारी या दर्द की वजह से नहीं। शायद मन पर किसी भारी बोझ की वजह से, जो मन से निकलकर शक्ल पर बिखरा हुआ था। साफ दिखने लगा था। दर्द को छुपाने की कोई कोशिश भी नहीं थी। फोन रखकर मैंने भी उनकी आँखों में देखा, मानो टेलीपैथी जानते हों दोनों। दुख ने जोड़ दिया था कुछ पल के लिए दो अजनबियों को। शायद उन्होने भी किसी को खोया था।
तभी, उनकी बेटी उनके पास आई और दिलासा देने के लिए अपना हाथ उनपर रखा। दुखी वो भी थी पर शायद माँ को संभालने के लिए खुद को मोहलत दी थी। कि अभी नहीं, कुछ देर स्ट्रॉंग बने रहना है। इतनी देर से मैं हिम्मत नहीं कर पाया था उनसे कुछ पूछने की। बेटी से पूछा, सब ठीक? उसने सिर “ना” में हिला दिया। और मैंने अपना सिर “हाँ” में हिलाया, जैसे सब समझ आ गया हो।
कुछ देर में हमारा कबूतर दूसरे शहर में उतरा। वो दोनों फिर पास से गुजरे, मैं कहना चाहता था कि “सब ठीक होगा आप चिंता मत कीजिये” पर नहीं कह पाया। मैं किसी को विदा करके आया था, वो शायद किसी को विदा करने जा रही थीं। मेरा ये शायद, शायद ही हो। जो भी दुख था, उतना बड़ा न हो, कोई बीमार हो, जो ठीक हो गया हो। और वो ग़मगीन चेहरा अब मुस्कुरा रहा हो।
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