चालीस की उम्र पार करने के बाद एक दिन अचानक आपको पीरियड्स पेन हो तो ? हो तो कुछ भी सकता है इस दुनिया में, नहीं? यही बात और कमाल की हो जाती है, अगर आपका जेंडर मेल यानि पुरुष हो। कुछ यही हुआ इस साल की शुरवात में मेरे साथ। इकत्तीस की रात से एक की शाम तक खाने, गप्प मारने और फोन में टाइम पास के अलावा कुछ नहीं किया। फिर पेट में मज़ेदार मरोड़ शुरू हुआ, जो तब जाकर रुका जब गैस के लिए सारे घरेलू नुस्खे आजमाने के बाद, आखिरकार एलोपथी पेनकिलर का सहारा लिया गया। दर्द गायब होने पर लगा सब कुछ ठीक है, पर दवा के असर के बाद दर्द ने ज़ोरदार वापसी की। मौसम भी ऐसा था कि कुछ भी हो सकता था। बहरहाल अटकलों का बाज़ार गरम रहा। शायद ठंड ने डंक मारा हो, या गैस का ही मामला हो। पर जब सिलसिला दो तीन दिन चलता रहा तो डॉक्टर से कन्सल्ट करके पाँच दिन कि कड़वी दवाओं की खुराक शुरू हुई। पहले दिन दर्द लौटा फिर धीरे धीरे चलता बना। मतलब कुछ मिलावटी खाया होगा, या अपनी ही प्रतिरोधक क्षमता कम रही होगी।
जब पेट दर्द जोरदार प्रहार कर रहा था और हिम्मत जवाब दे रही थी। तब मोर्चा होम मिनिस्टरी ने संभाला। तभी ये चर्चा एक बार फिर से हुई कि लड़कियाँ कुछ ऐसा ही दर्द हर महीने झेलती हैं। दफ्तरों में भी छुट्टी नहीं मिलती और मैनेजर भी नहीं समझते। ज़्यादातर मैनेजर हैं भी पुरुष तो समझें भी कैसे । मुझे भी लगा कि कमाल ही है। ऐसे समय में कुछ भी कर पाना कितना मुश्किल होता होगा। इस चर्चा में दर्द और मेरी उह आह के बीच हम दोनों हँस पड़े। जब आप खुद झेलते हैं तभी दिमाग की घंटी बजती है। तो इस तरह हैप्पी न्यू इयर की दुआओं के असर से साल के शुरवाती दस दिन छू मंतर हो गए। एक्सट्रा आराम हो गया।
एक उम्र गुज़र जाने तक, घर में दो बहनों के होते हुए भी। मुझे जब इस हर महीने होने वाली तकलीफ का एहसास और समझ नहीं रही। तो ऐसे में गलती किसकी? परेंटिंग की ? एडुकेशन सिस्टम की ? या पर्दे के पीछे छुपे हमारे अति शालीन समाज की? या शायद इन सभी का मिला जुला असर। सोचने वाली बात है। बराबरी का बेहतर समाज बनाना है तो लड़का हो या लड़की दोनों की समझ बचपन से बनानी होगी। बात छुपाने से अच्छा उनपर चर्चा करने से होगी।
ख़ैर, काफी बदलाव हुआ है और समाज धीरे धीरे जागरूक हो रहा है। पर जो बड़े बड़े नेता हैं शक्तिशाली देशों के वो जागें तो बात बनें। डोनाल्ड अंकल को लगता है ग्लोबल वार्मिंग फार्स यानि फ़र्ज़ी मुद्दा है। और उनके शपथ लेने से कुछ समय पहले ही हॉलीवुड में आग लगी जो बेकाबू हुई पड़ी है। पर मजाल है अंकल मान जाएँ कहते हैं, अफसरों की लापरवाही है। अमरीका को मुबारकबाद दूसरी बार अंकल को चुनने के लिए। अपने देश में आदरणीय भी फिर से ह्यूमन बन गए हैं। चलो अच्छा ही है धर्म ग्रन्थों में अवतारों की गिनती बढ़ानी नहीं पड़ेगी। बात वही है जब खुद पर आती है तभी दिमाग की घंटी बजती है। बड़े नेताओं को क्या फरक पड़ता है। कोविड़ में भी सब अंडरग्राउंड हो गए थे। और जनता का दिल इतना बड़ा कि भूलने में वक़्त नहीं लगाते लोग।
शादियों का सीज़न फिर से आ रहा, लोग बड़े शान से जीएसटी बचाने के लिए कैश में पेमेंट करने को तैयार हैं। ये वही लोग हैं जिन्हे लगता है नोटबन्दी ऐतिहासिक थी और किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ। क्या करें उनके घर में तब शादी थोड़ी थी। सोचिए कल घर में शादी है और आज शाम आकर कोई कह दे कि ये जो पैसा है अब लीगल नहीं। आपको बैंक और एटीएम में लाइन में लगना है सब काम छोड़कर देश के विकास के नाम पर। ऐसा कुछ एक सज्जन पुरुष ने जापान में जाकर कहा भी था मज़ाकिया अंदाज़ में, क्यूंकी फरक नहीं पड़ता।
देश दुनिया से वापस घर पर आते हैं। नोटबूक, पेन , पेपर, चिट्ठी, घड़ी, दिमाग की एकाग्रता और न जाने कितनी ही चीजों की तरह ही कलेंडर्स को भी फोन ने धीरे धीरे खा लिया है। पर शुक्र है ये डेस्क कलेंडर टाइम से आ गया था । जनवरी में गोपाल दास “नीरज” जी की ये कमाल की पंक्तियाँ पर्फेक्ट रिमाइन्डर है, मिनिमलिस्टिक बने रहने के लिए। नया साल बेहतर हो, ग्लोबल वार्मिंग फ़र्ज़ी निकले और गंगा मैया साफ हो जाए। और हाँ, ऐसे मौके कम ही आयें जब आप पर ऐसा कुछ बीते जिससे दिमाग की घंटी बजे।
“जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगाजितनी भारी गठरी होगी
उतना तू हैरान रहेगाउस से मिलना ना-मुम्किन है
जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगाहाथ मिलें और दिल न मिलें
ऐसे में नुक़सान रहेगाजब तक मंदिर और मस्जिद हैं
मुश्किल में इंसान रहेगा‘नीरज’ तू कल यहाँ न होगा
उस का गीत विधान रहेगा”– गोपालदास “नीरज”
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