“सही उम्र में शादी कर देनी चाहिए वरना बच्चे हाथ से निकल जाते हैं…” अपने आसपास बुज़ुर्गों और जो अभी उस श्रेणी में नहीं पहुँचें हैं, उनको भी ये कहते आपने कभी न कभी सुना होगा। सही उम्र यानि कम उम्र, जब वो या तो कैरियर की शुरुवात में हों या फिर पढ़ाई खत्म ही की हो। ऐसे डाइलॉग और सोच वाली गोली लड़कियों पर तो और भी ज़्यादा ज़ोर शोर और मारक क्षमता से दागी जाती है। इसकी वजह भी साफ है। उन्हें कहीं न कहीं ये पता है कि एक बार मानसिक, वैचारिक और आर्थिक परिपक्वता पा जाने पर, वो किसी से भी शादी करने के लिए तैयार नहीं होंगी। ये भी हो सकता है कि अगर वो ज़्यादा तार्किक सोच बना ले तो विवाह नाम की संस्था पर ही सवाल उठा दे।
इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि एक तरफ हम बच्चों को शादी लायक समझ रहे हैं, और दूसरी तरफ उनको इस लायक भी नहीं समझते कि वो अपनी ज़िंदगी का सबसे ज़रूरी निर्णय अपने हिसाब से ले सकें।
इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि एक तरफ हम बच्चों को शादी लायक समझ रहे हैं, और दूसरी तरफ उनको इस लायक भी नहीं समझते कि वो अपनी ज़िंदगी का सबसे ज़रूरी निर्णय अपने हिसाब से ले सकें। आप अपने बच्चों की शादी के लिए चिंता से घिरे किसी भी माँ बाप से ये बात करके देख सकते हैं। ज़्यादा समय नहीं लगेगा, दूसरे वाक्य में ही विरोधाभास सुनाई देने लगेगा। अगर हम अपनी आँख और कान के अलावा दिमाग को भी खुला रखें तो अपने आसपास विडंबनाओं का सागर हाई टाइड पर लहराता दिखेगा ।
अब ये विडम्बना नहीं तो क्या है कि अपने देश में जितना औसत खर्च लड़का लड़की की पढ़ाई पर होता है उससे दुगुना उनकी शादी पर। जेफ्रीस नाम की एक फ़र्म की रिपोर्ट के अनुसार भारत में शादी पर औसतन साढ़े बारह लाख रुपया खर्च होता है। ये रकम धूम धाम वाली शादी में कम से कम बीस से तीस लाख बैठती है । और सबसे ज़रूरी बात, भारत में वैडिंग मार्केट का मूल्यांकन दस लाख करोड़ रुपये है। हम अमरीका से आगे और बस चीन से पीछे हैं। खाद्य पदार्थों के बाज़ार के बाद शादी का बाज़ार ही चमचमा रहा है दूसरे नंबर पर।
हाल के वर्षों में बिग फैट इंडियन वैडिंग का जो तमाशा रह रह कर दिखने लगा है, वैसा पहले शायद ही कभी हुआ हो । बॉलीवुड सितारे हों या जाने माने उद्योगपतियों के बच्चे। जिस तरह से पैसा बहाया जा रहा है। और सिर्फ बहाया ही नहीं मीडिया की मेहरबानी से आम लोगों को दिन रात दिखाया भी जा रहा है। उसे अश्लीलता की श्रेणी में रखा जा सकता है। मगर सीमित आमदनी वाले मिडिल क्लास परिवारों को समझना होगा कि शादी के इस विशाल बाज़ार में हम ही खरीदार हैं और हम ही उत्पाद।
लगभग पच्चीस साल की उम्र के बाद हमारा मस्तिष्क पूरी तरह परिपक्व होता है। शायद यही कारण है कि समाज इस उम्र से पहले ही शादी ब्याह वाला मामला निपटा देना चाहता है।
इन विडंबनाओं को एक एक कर टटोलते हैं। पहला, शादी की सही उम्र क्या हो? ये बात सही है कि अब बच्चे कम उम्र में समझदार हो जाते हैं, डिजिटल युग को इसका क्रेडिट दिया जा सकता है। इसका कितना नुकसान है वो भी नज़र आने लगा है। ख़ैर , शादी करने की औसत उम्र भारत में बीते दशक में बढ़ी है। अभी ये तकरीबन बाईस साल है, तो सोचिए बढ्ने के बाद ये हाल है। पहले ये अठारह उनीस वर्ष थी । वही अगर हम वैश्विक स्तर पर देखें तो पच्चीस साल की उम्र शादी के लिए उपयुक्त निकल कर आती है। इसके पीछे वेज्ञानिक सहमति भी है। नियुरोलोजी के हिसाब से हमारे मस्तिष्क का पूरी तरह से विकास पच्चीस से तीस की उम्र के बीच जाकर खत्म होता है। माथे के पीछे मस्तिष्क का भाग, जिसे प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स कहा जाता है, परिपक्व होने वाले अंतिम भागों में से एक है। यह क्षेत्र योजना बनाने, प्राथमिकता देने और अच्छे निर्णय लेने जैसे कौशल के लिए जिम्मेदार है। यानि लगभग पच्चीस साल की उम्र के बाद हमारा मस्तिष्क पूरी तरह परिपक्व होता है। शायद यही कारण है कि समाज इस उम्र से पहले ही शादी ब्याह वाला मामला निपटा देना चाहता है।
स्वीडन विश्व के सबसे खुशहाल देशों में से एक है। इससे ये निष्कर्ष बिलकुल नहीं निकाला जाना चाहिए कि शादी का इससे कोई लेना देना है।
कुछ और मज़ेदार तथ्य। कुछ देश ऐसे भी हैं जहाँ शादी करने की इजाज़त तेरह चोदह साल की उम्र के बच्चो को भी है। बशर्ते उनके अभिवावकों की रजामंदी हो। गिने चुने अफ्रीकी देश हैं, ईरान और कुछ छोटे यूरोपियन देश भी इस कैटेगरी में आते हैं। ये कितने विकासशील या विकसित हैं, ये आप जाकर गूगल कर सकते हैं। हाँ इसके उलट स्वीडन जैसा देश भी है जहाँ शादी की औसत उम्र सबसे ज़्यादा है। पुरुषों के लिए लगभग सेंतीस साल और महिलाओं के लिए चौंतीस साल से थोड़ी अधिक। स्वीडन विश्व के सबसे खुशहाल देशों में से एक है। इससे ये निष्कर्ष बिलकुल नहीं निकाला जाना चाहिए कि शादी का इससे कोई लेना देना है। छोटा देश है, लगभग एक करोड़ आबादी वाला, वर्क लाइफ बैलेन्स अच्छा है, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं अच्छी है। अपने देश से तुलना ठीक नहीं, न ही उन अफ्रीकी देशों से और न ही स्वीडन जैसे देशों से।
अब दूसरी विडम्बना पर आते हैं, शादी पर खर्चा । क्या आप जानते हैं कि वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब के एक अध्ययन के अनुसार, देश में शीर्ष एक प्रतिशत लोग राष्ट्रीय आय का लगभग तेईस प्रतिशत अर्जित करते हैं, जबकि निचली पचास प्रतिशत आबादी सिर्फ पंद्रह प्रतिशत । अगर आपके पास करोड़ों रुपये हैं और आपके जीवन का एक ही लक्ष्य है, बच्चों की धूम धाम से शादी, तो आप बेशक पैसे उड़ाएँ, जलाएँ, या बहा दें। मगर भारत जैसे देश में जहाँ आय असमानता बीते सौ वर्षों में सबसे ज़्यादा है, अपनी जीवन भर की कमाई पढ़ाई की जगह शादी पर खर्च कर देना एक बेवकूफी ही कही जा सकती है।
ऐसा नहीं है कि कोई सुधार नहीं हुआ, दहेज जैसी कुरीतियों में काफी कमी आई है, मगर धीरे धीरे जो पैसा सीधे तौर पर लेन देन के काम आता था, वो अब दिखावे की भेंट चढ़ने लगा है। लड़कियों की पढ़ाई पर भी समाज काफी सजग हुआ है। लेकिन दुख की बात है कि जैसे ही लड़की पढ़ लिख जाये, बजाए इसके कि वो अपने कैरियर और सपनों पर ध्यान लगाए, उसपर शादी के लिए बेवजह प्रैशर बनाया जाता है। उसके लिए तरीके भी अजीब होते हैं, कभी माता पिता अपनी बढ़ती उम्र और बीमारी की व्यथा सुनाते हैं, तो कभी समाज का डर । ये कहानी हर घर की नहीं है, हाँ ज़्यादातर घरों में तो है ही।
“ई देश में हम लोगों के साथ हजारों सालों से एक फ़्रौड चल रहा है, ऊका नाम है लोग क्या कहेंगे”
हाल ही में एक फिल्म आई “लापता लेडिज”, हम सभी ने उसे देखा और सराहा, उसमें मज़ाक मज़ाक में एक से बढ़कर एक डाइलॉग हैं जो समाज पर सीधा प्रहार करते हैं। एक डाइलॉग ये भी था “ई देश में लड़की लोगों के साथ हजारों सालों से एक फ़्रौड चल रहा है, ऊका नाम है भले घर की बहू बेटी” मैं इसमे थोड़ा बदलाव करूंगा “ई देश में हम लोगों के साथ हजारों सालों से एक फ़्रौड चल रहा है, ऊका नाम है लोग क्या कहेंगे” लोगों के चक्कर में अपने बच्चों के साथ अन्याय न किया जाये, और न ही दिखावे में अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई को स्वाहा किया जाये।
वैसे भी देश में शिक्षा बजट न के बराबर है। तो जब तक हम उन, सही मायने में विकसित देशों की श्रेणी में नहीं आते, जहाँ नागरिकों को मूलभूत सुविधाएं देना सरकार अपनी ज़िम्मेदारी समझती है। कम से कम कब तक तो पैसे पढ़ाई, अच्छे स्वास्थ्य और घूमने फिरने पर खर्च कर ही सकते हैं। और साथ ही शादी जैसे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण फैसले को मस्तिष्क के परिपक्व होने वाली उम्र तक टाल ही सकते हैं।
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